छत्तीसगढ़ का नामकरण एवं प्राचीन इतिहास दृष्टि से छत्तीसगढ़ का अर्थ होता है- छत्तीस 'किले' या 'गढ़' । कलचुरी शासनकाल में रतनपुर शाखा एवं रायपुर शाखा के अन्तर्गत 18-18 गढ़ । इस प्रकार इस क्षेत्र में कुल 36 गढ़ थे। इन गढ़ों के कारण ही वर्तमान छत्तीसगढ़ प्रदेश 'छत्तीसगढ़' कहलाया । इन छत्तीस गढ़ों के नाम इस प्रकार हैं:-
रतनपुर शाखा |
रायपुर शाखा
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रतनपुर |
रायपुर |
मारों |
पाटन |
विजयपुर |
मोहदी |
खरौदगढ़ |
खल्लारी |
ओखरगढ़ |
सिमगा |
कोटगढ़ |
सिरपुर |
नवागढ़ |
सिंगारपुर |
पंडरभट्ठा |
फिंगेसर |
सेमुरियागढ़ |
लवन |
सोंठीगढ़ |
राजिम |
केंदागढ़ |
अमोरा |
पेन्ड्रागढ़ |
सिंगनगढ़ |
मदनपुर |
दुर्ग |
लाफागढ़ |
सुअरमार |
कोसगईगढ़ |
सरदा (सारधा) |
मातिनगढ़ |
टेंगनागढ़ |
उपरोडागढ़ |
एकलवार (अकलतरा) |
करकरी |
सिरसा |
कलचुरी राजवंश (990–1740 ई.)
छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में हैहय कलचुरी राजवंश का स्थान महत्वपूर्ण है।
इस अतिप्राचीन राजवंश का आदि स्थान पहले महिषमति और बाद में ये जबलपुर के निकट स्थित त्रिपुरी था।
इसी त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश की एक लहुरी शाखा ने कालांतर में छत्तीसगढ़ में राज्य स्थापित किया था ।
रतनपुर के कलचुरी- वर्तमान रतनपुर की प्रसिद्धि चारों युगों में रही है।
सतयुग में इसका नाम 'मणिपुर,
त्रेतायुग में 'माणिकपुर',
द्वापरयुग में 'हीरापुर और
कलयुग में यह 'रत्नपुर के नाम से प्रसिद्ध रहा है।
इसी रतनपुर में कलचुरी राजवंश की लहुरी शाखा नें 10वीं शताब्दी में राज्य स्थापित किया, जो 18वीं शताब्दी के मध्य तक कायम रहा।
रतनपुर में कलचुरी शासकों के राजत्व काल का विवरण इस प्रकार है:-
कलिंगराज (990 से 1020 ई.)
ये त्रिपुरी के कलचुरी शासक कोकल्ल द्वितीय के 18 पुत्रों में से एक थे।
कलिंग राज ने ही छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश का राज्य स्थापित किया था । सन् 990 में कोकल्ल द्वितीय के राज्यकाल के बाद कलिंगराज ने अपने बाहुबल से तुम्माण (तुमान) को जीत कर राज्य स्थापित किया था । पृथ्वीदेव प्रथम के आमोदा में प्राप्त ताम्रपत्रों से यह ज्ञात होता है कि
कलिंगराज ने तुम्माण में राज्य करते हुए अपने शत्रुओं का नाश किया तथा राज्य के वैभव में वृद्धि की ।
कतिपय छत्तीसगढ़ इतिहास लेखक कलिंगराज को दक्षिण कोसल का विजेता निरूपित करते हैं।
कलिंगराज से सम्बन्धित प्राप्त आमोदा ताम्रपत्र में केवल दक्षिण कोसल के एक जनपद 'तुम्माण' (तुमान) विजित करने का उल्लेख मिलता है।
कमलराज (1020 से 1045 ई.)
कलिंगराज की मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र कमलराज 1020 ई. में गद्दी पर आसीन हुए।
इनके राज्यकाल में त्रिपुरी के गांगदेव ने उत्कल पर आक्रमण किया था।
इस आक्रमण के समय कमलराज ने सैन्य सहायता पहुँचायी थी। पृथ्वीदेव प्रथम के आमोदा में प्राप्त ताम्रपत्र से यह जानकारी प्राप्त होती है कि कमलराज ने गांगदेव के लिये उत्कल नरेश को पराजित कर बहुतायत रूप से हाथी-घोड़े सम्पत्ति प्राप्त की तथा इस सम्पत्ति को गांगदेव को सौंप दिया था।
कमलराज, उत्कल अभियान से लौटते समय साहिल्ल नामक एक वार पुरुष को साथ ले आये थे। उसने अपने स्वामी कमलराज के राज्य क्षेत्र में वृद्धि की थी।
रत्नराज प्रथम (1045 से 1065 ई.)
रतनपुर में प्राप्त शिलालेख में कमलराज के पुत्र का नाम रत्नराज मिलता है।
1045 ई. में कमलराज की मृत्यु हो गई, तदोपरान्त उनका पुत्र रत्नराज प्रथम राज्य के उत्तराधिकारी बने ।
रतनपुर शाखा के कलचुरी शासकों में रत्नराज प्रथम काफी प्रसिद्धि प्राप्त शासक थे उनकी प्रसिद्धि राज्य के विस्तार के कारण नहीं अपितु उनके कार्यों निर्माण शैली के कारण थी ।
रत्नराज प्रथम ने राजधानी तुम्मान को अलंकृत किया, वहाँ पर आम्रवन, पुष्पोवन लगवाए तथा अनेक देवताओं के मंदिरों का निर्माण करवाया,
अतः राजा रत्नराज प्रथम स्थापत्य प्रेमी शासक प्रमाणित हुए। उन्होंने तुम्मान से 45 मील दूर रतनपुर नामक नगर की स्थापना की।
सन् 1045 ई. में तुम्मान से 45 मील दूरी पर रतनपुर नामक नगर की स्थापना की एवं तुम्मान के स्थान पर रतनपुर को राजधानी बनाया,
जो उत्तरकालीन कलचुरी राजाओं की राजधानी बनी रही। राजा रत्नराज प्रथम ने कोमोमंडल के राजा वज्जूक की कन्या (नोनल्ल से विवाह किया। इस वैवाहिक सम्बन्ध से उनकी स्थिति और भी मजबूत हो गई।
पृथ्वीदेव प्रथम (1065 से 1090 ई.)
रत्नराज प्रथम की मृत्यु उपरान्त उनके पुत्र पृथ्वीदेव प्रथम 1065 ई. में रतनपुर राज्य के अधिपति बने।
उनके राज्यकाल के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले तीन अभिलेख आमोदा, रायपुर तथा लाफा से प्राप्त हुए हैं ।
आमोदा से प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेख में उन्हें 21 हजार ग्रामों का शासक कहा गया है,
जिसमें सम्पूर्ण दक्षिण कोसल आ जाता है।
पृथ्वीदेव प्रथम ने 'सकल कोसलाधिपति' उपाधि धारण की थी। उनकी उपाधि से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने सम्पूर्ण दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) पर अपने प्रभुत्व की स्थापना की थी ।
पृथ्वीदेव प्रथम को निर्माण कार्यों में रूचि थी,
उन्होंने तुम्मान में पृथ्वीदेवेश्वर नामक मंदिर बनवाया था। इसी प्रकार राजधानी रतनपुर में समुद्र के समान विशाल सरोवर का निर्माण करवाया था ।
जाजल्लदेव प्रथम (1090 से 1120 ई.)
पृथ्वीदेव प्रथम के पश्चात् लगभग 1090 ई. में जाजल्लदेव प्रथम रतनपुर के सिंहासन पर आसीन हुए ।
उनके राजत्वकाल का महत्वपूर्ण शिलालेख रतनपुर में प्राप्त हुआ है।
इस अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि जाजल्लदेव प्रथम ने अपने सेनापति जगपालदेव की वीरता से बैरागढ़, लंजिका (लांजी), भाण्डार (भंडारा), दंडकपुर, नंदावली, कुक्कुट, राठ, तेरम (टेरम), तमनाल (तमनार ) को जीत कर आधिपत्य की स्थापना की थी।
जाजल्लदेव प्रथम ने बस्तर के छिंदक नागवंश के शासक सोमेश्वर को पराजित कर बंदी बना लिया था । जाजल्लदेव एक साम्राज्यवादी शासक ही नहीं अपितु उच्चकोटि के निर्माणकर्ता, स्थापत्यकला के प्रेमी भी थे।
उन्होंने अपने नाम से जाजल्लपुर नामक एक नगर बसाया,
यह नगर आज जांजगीर के नाम से जाना जाता है। इस नगर में एक बड़ा तालाब और आम्रवन लगवाया। सन् 1120 ई. में जाजल्लदेव की मृत्यु हो गई।
रत्नदेव द्वितीय ( 1120 से 1135 ई.)
जाजल्लदेव के पुत्र रत्नदेव द्वितीय 1120 ई. गद्दी पर आसीन हुए। राजा रत्नदेव द्वितीय के ताम्रपत्र अभिलेख अकलतरा, खरौद, पारागांव शिवरीनारायण एवं सुरखों में प्राप्त हुए हैं।
ऐसी जानकारी प्राप्त होती है कि रत्नदेव द्वितीय ने त्रिपुरी के राजा गयाकर्ण, गंगवाड़ी के राजा अनंतवर्मा को परास्त किया था।
रत्नदेव द्वितीय के राजत्वकाल में कला को राजाश्रय प्राप्त हुआ। उन्होंने रतनपुर में अनेक मंदिर बनवाए तथा तालाब खुदवाए थे ।